संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। ऋग्वेद से पहले भी सम्भव है कोई भाषा
विद्यमान रही हो परन्तु आज तक उसका कोई लिखित रूप नहीं प्राप्त हो पाया। इससे
यह अनुमान होता है कि सम्भवतः आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा ऋग्वेद की ही भाषा,
वैदिक संस्कृत ही थी। विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की भी एक काल अथवा एक
स्थान पर रचना नहीं हुई। इसके कुछ मन्त्रों की रचना कन्धार में, कुछ की सिन्धु
तट पर, कुछ की विपाशा-शतद्रु के संभेद (हरि के पत्तन) पर और कुछ मन्त्रों की
यमुना गंगा के तट पर हुई। इस अनुमान का आधार यह है कि इन मन्त्रों में कहीं
कन्धार के राजा दिवोदास का वर्णन है, तो कहीं सिन्धु नरेश सुदास का। इन दोनों
राजाओं के शासन काल के बीच शताब्दियों का अन्तर है। इससे यह अनुमान होता है कि
ऋग्वेद की रचना सैकड़ों वर्षों में जाकर पूर्ण हुई और बाद में इसे
संहित-(संग्रह)-बद्ध किया गया।ऋग्वेद के उपरान्त ब्राह्मण ग्रन्थों तथा सूत्र
ग्रन्थों का सृजन हुआ और इनकी भाषा ऋग्वेद की भाषा से कई अंशों में भिन्न
लौकिक या क्लासिकल संस्कृत है। सूत्र ग्रन्थों के रचना काल में भाषा का
साहित्यिक रूप व्याकरण के नियमों में आबद्ध हो गया था। तब यह भाषा संस्कृत
कहलायी। तब छन्दस् वेद तथा लोक-भाषा (लौकिक) में पर्याप्त अन्तर स्पष्ट रूप
में प्रकट हुआ।  डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का मत है कि पतञ्जलि (पाणिनि की व्याकरण
अष्टाध्यायी के महाभाष्यकार) के समय में व्याकरण शास्त्र जानने वाले विद्वान्
ही केवल शुद्ध संस्कृत बोलते थे, अन्य लोग अशुद्ध संस्कृत बोलते थे तथा साधारण
लोग स्वाभाविक बोली बोलते थे, जो कालान्तर में प्राकृत कहलायी। डॉ. चन्द्रबली
पांडेय का मत है कि भाषा के इन दोनों वर्गों का श्रेष्टतम उदाहरण वाल्मीकि
रामायण में मिलता है, जबकि अशोक वाटिका में पवन पुत्र ने सीता से ‘द्विजी’
(संस्कृत) भाषा में बात न करके ‘मानुषी’ (प्राकृत) भाषा में बातचीत की। लेकिन
डॉ. भोलानाथ तिवारी ने तत्कालीन भाषा को पश्चिमोत्तरी मध्य देशी तथा पूर्वी
नाम से अभिहित किया है। परन्तु डॉ. रामविलास शर्मा आदि कुछ विद्वान्, प्राकृत
को जनसाधारण की लोक-भाषा न मानकर उसे एक कृत्रिम साहित्यिक भाषा स्वीकार करते
हैं। उनका मत है कि प्राकृत ने संस्कृत शब्दों को हठात् विकृत करने का नियम
हीन प्रयत्न किया। डॉ. श्यामसुन्दर दास का मत है-वेदकालीन कथित भाषा से ही
संस्कृत उत्पन्न हुई और अनार्यों के सम्पर्क का सहारा पाकर अन्य प्रान्तीय
बोलियाँ विकसित हुईं। संस्कृत ने केवल चुने हुए प्रचुर प्रयुक्त, व्यवस्थित,
व्यापक शब्दों से ही अपना भण्डार भरा, पर औरों ने वैदिक भाषा की प्रकृति
स्वच्छान्दता को भरपेट अपनाया। यही उनके प्राकृत कहलाने का कारण है।” व्याकरण
के विधि निषेध नियमों से संस्कारित भाषा शीघ्र ही सभ्य समाज की श्रेष्ठ भाषा
हो गई तथा यही क्रम कई शताब्दियों तक जारी रहा। यद्यपि महात्मा  बुद्ध के समय
संस्कृत की गति कुछ शिथिल पड़ गई, परन्तु गुप्तकाल में उसका विकास पुनः तीव्र
वेग से हुआ। दीर्घकाल तक संस्कृत ही राष्ट्रीय भाषा के रूप में सम्मानित
रही।जनसाधारण अल्प शिक्षित वर्ग के लिए संस्कृत के नियमों का अनुसरण कठिन था,
अतः वे लोकभाषा का ही प्रयोग करते थे। इसीलिए महावीर स्वामी ने जैन मत के तथा
महात्मा बुद्ध ने बौद्ध मत के प्रसार के लिए लोकभाषा को ही अपनी वाणी का
माध्यम बनाया। इससे लोकभाषा को ऐसी प्रतिष्ठा का पद प्राप्त हुआ, जो उससे
पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुआ था। फिर भी संस्कृत भाषा का महत्त्व कभी कम नहीं
हुआ। भास, कालिदास आदि के नाटकों में सुशिक्षित व्यक्ति तो संस्कृत बोलते हैं,
परन्तु अशिक्षित पात्र -विट-चेट विदूषक तथा दास-दासियाँ आदि प्राकृत में बात
करते हैं। परन्तु ये सब जिन प्रश्नों के उत्तर प्राकृत में देते हुए दिखाई गए
हैं, उन प्रश्नों को संस्कृत में ही पूछा गया है। इससे स्पष्ट होता है। कि
जनसाधारण भी संस्कृत को अच्छी तरह समझ लेते थे, भले ही बोलने में उन्हें
कठिनाई प्रतीत होती हो। पंचतंत्र में विष्णु शर्मा ने संस्कृत भाषा में ही
राजकुमारों को शिक्षा प्रदान की थी। डॉ. आर.के. मुकर्जी ने कहा है, ब्राह्मण
काल एवं उसके पश्चात् भी निःसन्देह संस्कृत सामान्य जनता के धार्मिक कृत्यों
पारिवारिक संस्कारों तथा शिक्षा एवं विज्ञान की भाषा थी।”1 सरदार के.एम.
पणिक्कर ने कहा है संस्कृत विश्व की संस्कृति और सभ्यता की भाषा है जो भारत की
सीमाओं के पार दूर-दूर तक फैली हुई थी।” हिन्दी का निर्माण-काल अपभ्रंश की
समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा
सकता है। हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है।
1000 ई. के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश
भाषाएँ साहित्यिक संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में
विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो
भी कथ्य रुप था-वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ। अपभ्रंश के संबंध में
‘देशी’ शब्द की भी बहुधा चर्चा की जाती है। वास्तव में ‘देशी’ से देशी शब्द
एवं देशी भाषा दोनों का बोध होता है। प्रश्न यह कि देशीय शब्द किस भाषा के थे
? भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में उन शब्दों को ‘देशी’ कहा है ‘जो संस्कृत के
तत्सम एवं सद्भव रूपों से भिन्न हैं।’ ये ‘देशी’ शब्द जनभाषा के प्रचलित शब्द
थे, जो स्वभावतया अप्रभंश में भी चले आए थे। जनभाषा व्याकरण के नियमों का
अनुसरण नहीं करती, परंतु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना
पड़ता है, प्राकृत-व्याकरणों ने संस्कृत के ढाँचे पर व्याकरण लिखे और संस्कृत
को ही प्राकृत आदि की प्रकृति माना। अतः जो शब्द उनके नियमों की पकड़ में न आ
सके, उनको देशी संज्ञा दी गई।  प्राचीन काल से बोलचाल की भाषा को देशी भाषा
अथवा ‘भाषा’ कहा जाता रहा। पाणिनि के समय में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। अतः
पाणिनी ने इसको ‘भाषा’ कहा है। पतंजलि के समय तक संस्कृत केवल शिष्ट समाज के
व्यवहार की भाषा रह गई थी और प्राकृत ने बोलचाल की भाषा का स्थान ले लिया था।

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