Sir thank u. On Dec 1, 2016 10:55 PM, "Shreenivas Naik" < shreenivasnaik.hindi.vo...@gmail.com> wrote:
> हिन्दी में यात्रा संस्मरण तो बहुत हैं. उनमें से श्रेष्ठ दस कृतियां चुनना > बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैंने अपने विवेक से जो रचनाएं चुनीं, वे इस > प्रकार हैं : > > *1. यात्रा का आनंदः दत्तात्रेय बालकृष्ण 'काका' कालेलकर* > > काका कालेलकर शुरू में गुजराती में लिखते थे. उनकी 'हिमालय यात्रा' अनुदित > होकर हिंदी में छपी थी. बाद में वो हिंदी में ही लिखने लगे. > > उन्हें यात्राओं में बहुत आनंद आता था. देश और विदेश में अनेक प्रवास > उन्होंने लिपिबद्ध किए. भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के उपाध्यक्ष होने पर > सुदूर विदेश यात्राओं का सुयोग भी मिला. > > उनका कोई साढ़े तीन सौ पृष्ठों का संकलन 'यात्रा का आनंद' बहुत महत्त्वपूर्ण > कृति है. वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से छपी थी. > > संकलित यात्रा-वृत्तांत विभिन्न रूपों में हैं - संस्मरण की शैली में, लेख > रूप में, पत्रों की शक्ल में. > > करसियांग, नीलगिरि, अजंता, सतपुड़ा, गंगोत्री आदि की भारतीय यात्राओं के साथ > अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका आदि की कोई सौ यात्राओं का ब्योरा > हमें इस पुस्तक में मिलता है - जमैका, त्रिनिदाद और (ब्रिटिश) गयाना तक का. > > लेखक की जिज्ञासु वृत्ति इन संस्मरणों की विशेषता है और जानकारी साझा करने की > ललक भी. विदेश में अक्सर वो बाहर की प्रगति के बरअक्स भारतीय संस्कृति की > निरंतरता को याद करते हैं. > > *2. किन्नर देश में: राहुल सांकृत्यायन* > > महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिंदी में 'घुमक्कड़-शास्त्र' के प्रणेता थे. वो > जीवन-भर भ्रमणशील रहे. > > ज्ञान के अर्जन में उन्होंने सुदूर अंचलों की यात्राएं कीं. उन पर अनेक > किताबें लिखीं. > > 'किन्नर देश में' हिमाचल प्रदेश में तिब्बत सीमा पर सतलुज नदी की उपत्यका में > बसे सुरम्य इलाक़े किन्नौर की यात्रा-कथा है. > > यह यात्रा उन्होंने साल 1948 में की थी. मूल शब्द 'किन्नर' है, इसलिए राहुलजी > सर्वत्र इसी नाम का प्रयोग करते हैं. > > कभी बस और घोड़े के सहारे और कभी कई दफ़ा पैदल भी की गई यात्रा का वर्णन करते > हुए राहुलजी क्षेत्र के इतिहास, भूगोल, वनस्पति, लोक-संस्कृति आदि अनेक पहलुओं > की जानकारी जुटाते हैं. > > किताब का सबसे दिलचस्प पहलू वह है जहां वे अपने जैसे घुमक्कड़ों की खोज कर > उनका संक्षिप्त जीवन-चरित भी लिखते हैं. > > उन्हें एक ऐसा यात्री मिला जो पांच बार कैलाश-मानसरोवर हो आया था. उसने > सैकड़ों यात्राएं कीं और डाकुओं ही नहीं, मौत से दो-चार हुआ और बच आया. > > पुस्तक का अंतिम हिस्सा सूचनाओं से भरा है, जहां वो किन्नौर के अतीत, > लोक-काव्य और उसका हिंदी अनुवाद, किन्नर भाषा का व्याकरण और शब्दावली समझाते > हैं. > > *3. अरे यायावर रहेगा यादः सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'* > > हिंदी साहित्य में रचनात्मक यात्रा-वृत्तांत की लीक डालने वाली कृति अब > कमोबेश क्लासिक का स्थान पा चुकी है. > > अज्ञेय की एक कविता ('दूर्वाचल') की पंक्ति इस यात्रा-वृत्तांत का नाम बनकर > अपने आप में एक मुहावरा-सा बन चुकी है और 'यायावर' नाम लगभग 'अज्ञेय' का > पर्याय. > > दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के भारत पर हमले की आशंका में फ़ैज़ अहमद > फ़ैज़, मुश्ताक़ अली आदि की तरह अज्ञेय भी देश-रक्षा में मित्र (अलाइड) देशों > की फ़ौज में शामिल हो गए थे. > > युद्ध ख़त्म होने पर लौट आए. फ़ौजी जीवन से आम जीवन में वापसी तक अज्ञेय ने > अनेक भारतीय स्थलों की जो यात्राएं कीं, वे इस किताब में लिपिबद्ध हैं. > > पूर्वोत्तर के जिन क़स्बों, जंगलों, माझुली जैसे द्वीप के बारे में उत्तर > भारत का निवासी जहां आज भी बहुत नहीं जानता, अज्ञेय ने चालीस के दशक में > उन्हें फ़ौजी ट्रक हांकते हुए नापा. > > असम से बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, तक्षशिला (अब पाकिस्तान में), > एबटाबाद (जहां हाल में ओसामा बिन लादेन को मारा गया था), हसन अब्दाल, नौशेरा, > पेशावर और अंत में खैबर - यानी भारत की एक सीमा से दूसरी सीमा की यात्रा; > उसमें तरह-तरह के अनुभव, दृश्य, लोग और हादसे. > > इस यात्रा के अलावा कुल्लू-रोहतांग जोत की यात्रा भी इस कृति में है, जब लेखक > ने मौत को क़रीब से देखा. > > उस संस्मरण का नाम ही है, 'मौत की घाटी में'. अब रोहतांग न मौत की घाटी रहा, > न यात्रा उतनी दुगर्म. 'एलुरा' और 'कन्याकुमारी से नंदा देवी' वृत्तांत भी > कृति में बहुत दिलचस्प हैं. > > दक्षिण के बारे में भी उस ज़माने में यह यात्रा-वृत्तांत हिंदी पाठक समाज के > लिए जानकारी की परतें खोलने वाला साबित हुआ था. > > *4. ऋणजल धनजलः फ़णीश्वरनाथ रेणु* > > यात्राएं केवल तफ़रीह के लिए नहीं होतीं. 'मैला आंचल' और 'परती परिकथा' जैसी > ज़मीनी कृतियों के रचयिता रेणु ने दो संस्मरण लिखे, जो इस विधा को नई भंगिमा > देते हैं. > > दोनों में उनके अपने बिहार की जानी-पहचानी जगहों की यात्रा है, लेकिन नितांत > भयावह दिनों की. > > साल1966 में दक्षिणी बिहार में पड़े सूखे के वक्त उस क्षेत्र की यात्रा > उन्होंने दिनमान-संपादक और कवि-कथाकार 'अज्ञेय' के साथ की. > > बाद में साल 1975 में पटना और आसपास के क्षेत्र में बाढ़ की लीला को उन्होंने > क़रीब से देखा. दोनों जगह उनके साथ उनकी नज़र विपरीत परिस्थितियों में भी > मानवीय करुणा को चीन्हती है. > > बाढ़ का इलाक़ा हो या सूखा क्षेत्र, उनका वर्णन हर जगह संवेदनशील कथाकार का > रहता है. गंभीर पर्यवेक्षण, जो उनकी चिर-परिचित ठिठोली को भी उन हालात में > भूलने नहीं देता. > > संस्मरणों में पीड़ित तो आते ही हैं फ़ौजी, राहतकर्मी, पत्रकार, मित्र, पत्नी > लतिकाजी की उपस्थिति उनको और जीवंत बनाती है. और तो और राहत सामग्री गिराता > हेलिकॉप्टर भी जैसे कथा का एक चरित्र बनकर उपस्थित होता है. > > *5. आख़िरी चट्टान तकः मोहन राकेश* > > गोवा से कन्याकुमारी तक की यह यात्रा कथाकार और नाटककार मोहन राकेश ने सन् > 1952-53 में की थी कोई तीन महीने में. > > किताब उन्होंने ‘रास्ते के दोस्तों’ को समर्पित की, साथ में यह जोड़ते हुएः > "पश्चिमी समुद्र-तट के साथ-साथ एक यात्रा". > > देश के दक्षिण और समुद्र क्षेत्र की मोहन राकेश की यह पहली यात्रा थी. > > जैसा कि रेल का ब्योरा लिखने से पहले वे चार पन्नों में कुछ पूर्व-पीठिका-सी > बनाते हुए कहते हैं: "एक घने शहर (अमृतसर) की तंग गली में पैदा हुए व्यक्ति के > लिए उस विस्तार के प्रति ऐसी आत्मीयता का अनुभव होने का आधार क्या हो सकता था? > > केवल विपरीत का आकर्षण?" नए संसार को जानने की यह ललक उन्हें मालाबार की लाल > ज़मीन, घनी हरियाली और नारियल वृक्षों से लेकर कन्याकुमारी की चट्टान तक लिए > जाती है. > > बीच-बीच में अनेक दिलचस्प हमसफ़र चरित्रों से दो-चार करते हुए. इस > यात्रा-वृत्तांत को हम एक कहानी की तरह पढ़ सकते हैं. > > *6. चीड़ों पर चांदनीः निर्मल वर्मा* > > हिंदी लेखकों को तब विदेश यात्राओं का बहुत सुयोग नहीं मिलता था. अज्ञेय के > बाद निर्मल वर्मा इस मामले में बहुत भाग्यशाली रहे. > > अज्ञेय ने जैसे विदेश यात्राओं के संस्मरण 'एक बूंद सहसा उछली' में लिखे, > निर्मल वर्मा 'चीड़ों पर चांदनी' के साथ इस विधा में सामने आए. > > हालांकि इस पुस्तक में एक संस्मरण उनके जन्मस्थल शिमला पर भी है. पहले-पहल यह > कृति साल 1962 में छपी थी. > > विदेश यात्रा निर्मल वर्मा के लिए महज़ पर्यटकों की सैर नहीं रही. वे जर्मनी > जाते हैं तो नाटककार ब्रेख्त उनके साथ चलते दिखाई देते हैं. > > कोपनहेगन में दूसरे यूरोपीय देशों की मौजूदगी भी साथ रहती है. सबसे > महत्त्वपूर्ण दो यात्रा-संस्मरण आइसलैंड के हैं. > > आइसलैंड की हिमनदियों (ग्लेशियर) और क्षेत्र की साहित्यिक संस्कृति का आंखों > देखा वर्णन हिंदी में इससे पहले शायद ही देखने में आया हो. > > इन संस्मरणों के कई साल बाद निर्मलजी ने 'सुलगती टहनी' (कुंभ यात्रा) और > डायरी की शक्ल में अनेक दूसरे यात्रा-संस्मरण भी लिखे. पर 'चीड़ों पर चांदनी' > इस विधा में उनकी अनूठी कृति के रूप में हमेशा पहचानी जाती रही है. > > *7. स्पीति में बारिशः कृष्णनाथ* > > कृष्णनाथ अर्थशास्त्र के शिक्षक रहे और बौद्ध धर्म के अध्येता. मगर उनकी > यायावर-वृत्ति उन्हें बार-बार हिमालय ले जाती रही है. > > बौद्ध धर्म का अन्वेषण ही नहीं, हिमालयी अंचल के लोक-जीवन को उन्होंने बहुत > आत्मीय और सरस ढंग से अपने अनेक संस्मरणों में लिखा है. > > साल 1974 की यात्रा को कवि कमलेश साल 1982 में यात्रा-त्रयी के रूप में > प्रकाश में लाए थे. श्रृंखला में सबसे पहली कृति थी- 'स्पीति में बारिश'. फिर > 'किन्नर धर्मलोक' और 'लद्दाख़ में राग-विराग' छपी. > > कुछ वर्ष बाद कुमाऊं क्षेत्र पर भी उनकी ऐसी ही तीन किताबों का सिलसिला देखने > में आया. लाहौल-स्पीति, रोटांग (रोहतांग) जोत के पार हिमाचल प्रदेश का सीमांत > क्षेत्र है. लोक-जीवन तो हर जगह अपना होता ही है, पर इस क्षेत्र के पहाड़ और > घाटियां बाक़ी हिमालय से बहुत जुदा हैं. > > कहते हैं, स्पीति में कभी बारिश नहीं होती. उस दुनिया में कृष्णनाथ बारिश > ढूंढते हैं और पाते हैं, स्नेह की, ज्ञान की, परंपरा और संस्कृति की, मानवीय > रिश्तों की बारिश. > > कृष्णनाथ का गद्य अप्रतिम है. सरस और लयपूर्ण. छोटे-छोटे वाक्यों में वे अपने > देखे को हमसे बांटते नहीं, हम पर अपने गद्य का जैसे जादू चलाते हैं. चंद > पंक्तियां देखिएः > > *"विपाशा को देखता रहा. सुनता रहा. फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्न हो गया. > भीतर-बाहर सिर्फ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया. न नाम, न रूप, न गंध, न > स्पर्श, न रस, न शब्द. सिर्फ सुन्न. प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह. यह विपाशा क्या > अपने प्रवाह के लिए है? क्या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, > वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? > पुण्यतमा है? क्या शीतल, नित्य गतिशील सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश > होते हैं?"* > > *8. यूरोप के स्केच: रामकुमार* > > रामकुमार की ख्याति एक चित्रकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय है, लेकिन हिंदी > में कथाकार के रूप में उनकी अपनी प्रतिष्ठा है. > > साल 1950-51 में वे पेरिस के आर्ट स्कूल में रहे. उस वक़्त मौक़े-बेमौक़े वे > यूरोप के देशों की सैर को निकलते रहे. > > "नए-नए शहर, नई-नई भाषाएं, नए-नए लोग... और मैं अकेला निरुद्देश्य यात्री की > भांति सुबह से शाम तक सड़कों, गलियों, कैफ़ों और कला-संग्रहालयों के चक्कर > लगाया करता." > > साल 1955 में वे फिर यूरोप गए. दोनों प्रवासों के कोई बीस यात्रा-संस्मरण इस > पुस्तक में संकलित हैं. > > क़ाहिरा की एक शाम, रोमा रोलां के घर में, फूचिक के देश में, टॉल्सटाय के घर > में, दांते और माइकल एंजेलो का देश हर तरह से विशिष्ट यात्रा-वृत्तांत हैं. > > कथाकार होने के बावजूद रामकुमार संस्मरण लिखते वक़्त तटस्थ रहते हैं और > जानकारी और अनुभवों को किसी निबंध की तरह हमसे बांटते हैं. किताब में उनके > बनाए रेखाचित्र पाठक के लिए एक अतिरिक्त उपलब्धि साबित होते हैं. > > *9. बुद्ध का कमण्डल लद्दाखः कृष्णा सोबती* > > कृष्णा सोबती अपनी अनूठी कलम लिए एक रोज़ दिल्ली से लेह को चल दीं. यह किताब > उस यात्रा की डायरी समझिए. > > इसका प्रकाशन इतना सुरुचिपूर्ण है कि हिंदी में शायद ही कोई और > यात्रा-संस्मरण इस रूप में छपा होगा. > > हर पन्ने पर रंगीन तस्वीरें, रेखांकन, वाक्यांश कृष्णाजी के गद्य की शोभा > बढ़ाते हैं. वे अपनी पैनी और सहृदय नज़र से लेह के बाज़ार, महल, दुकानें, लोग, > गुरुद्वारे, पुस्तकालय, प्रशासन, प्रकृति सबको निहारती चलती हैं. > > सबसे ज्यादा उनकी नज़र टिकती है बौद्ध-विहारों के भव्य और कलापूर्ण एकांत पर. > वे फियांग, हैमिस, लामायूरू, आलची, थिकसे के गोम्पा देखती चलती हैं. > > जांसकर घाटी की परिक्रमा करती हैं और हमारे सम्मुख लद्दाख़ की संस्कृति, > भाषा, लिपि, रीति-रिवाज, नदियों और दर्रों को हाथ की रेखाओं की तरह बड़ी > आत्मीयता से परोसती चलती हैं. > > करगिल को हमने भारत-पाक संघर्ष से पहचाना है. कृष्णा सोबती हमारे सामने उस > करगिल का चेहरा ही बदल देती हैं. > > *10. तीरे तीरे नर्मदाः अमृतलाल वेगड़* > > सैलानी की यात्रा का तेवर अलग होता है और यात्री का अलग. अमृतलाल वेगड़ > नर्मदा की विकट मगर सरस यात्राओं के लिए पहचाने गए हैं. > > वे चित्रकार भी हैं और कला-शिक्षक भी. यात्रा के रेखांकनों-चित्रों से > सुसज्जित उनकी यात्रा-त्रयी इस किताब के साथ पूर्णता पाती हैः सौंदर्य की नदी > नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा. > > यात्राओं का यह सिलसिला वेगड़जी ने पत्नी कांताजी के साथ विवाह की पचासवीं > सालगिरह के मौके पर शुरू किया था. > > अंतराल में नर्मदा जैसे उन्हें फिर बुलाती रही और वे वृद्धावस्था में भी अपने > सहयात्रियों के साथ निकल-निकल जाते रहे. > > हम इन संस्मरणों में कदम-कदम पर नर्मदा के इर्द-गिर्द के लोकजीवन से दो-चार > होते हैं. वेगड़जी के संस्मरणों में नदी नदी नहीं रहती, एक जीवंत शख्सियत बन > जाती है जो हज़ारों-हज़ार वर्षों से अपने प्रवाह में जीवन को रूपायित और > आलोकित करती आई है. > > वेगड़जी का विनय देखिए, फिर भी कहते क्या हैं*, **"कोई वादक बजाने से पहले > देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा > परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे. परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे."* > > --- > > *अन्य पठनीय यात्रा-संस्मरणः राह बीती: यशपाल; सफ़रनामा पाकिस्तान: देवेंद्र > सत्यार्थी; यात्रा-चक्र: धर्मवीर भारती; अपोलो का रथः श्रीकांत वर्मा; सफ़री > झोले में: अजित कुमार; कश्मीर से कच्छ तक: मनोहरश्याम जोशी; एक लंबी छांहः > रमेशचंद्र शाह; रंगों की गंधः गोविंद मिश्र; नए चीन में दस दिनः गिरधर राठी; > यूरोप में अंतर्यात्राएं: कर्ण सिंह चौहान; अफ़ग़ानिस्तानः बुज़कशी का मैदानः > नासिरा शर्मा; सम पर सूर्यास्तः प्रयाग शुक्ल; एक बार आयोवाः मंगलेश डबराल; > अवाक: गगन गिल; चलते तो अच्छा थाः असग़र वजाहत; नीले बर्फीले स्वप्नलोक में: > शेखर पाठक; कहानियां सुनाती यात्राएं: कुसुम खेमानी; वह भी कोई देश है महाराजः > अनिल यादव; दर दर गंगेः अभय मिश्र/पंकज रामेंदु* > > -- > 1. 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